ग्राम्य जीवन
ग्राम्य जीवन

अहा; ग्राम्य जीवन भी क्या है ,
गरमी बीते, नीम के नीचे 
जाड़ा ,अलाव की ओर खींचे
बारिश, टिप-टिप भीगत बीते
बाकी दिन , खेतन में बीते।
गाँव की सोंधी मिट्टी से, दीवालें हैं खड़ी हुई
कहीं पे छप्पर औ खपरैले ,कहीं पे पटिया पड़ी हुई हैं
ना हैं फाटक , ना दरवाजे , टटरा देखो लगे हुए हैं
ना हैं ताले इंटरलॉक , कुलुप न देखो लगे हुए हैं।
भोर हो गई उठो रे भैया ,बैल लगाओ नांद पर
छोड़ो बछड़ा गाय लगाओ , भैसों को भी नहलाओ
लिए अंगोछा हल काँधे पर , दांतन में दातून दबी
बैलों की छरकी पकड़े , दादा खेत की ओर चले।
तीन पहर दिन चढ़ि आवा है , घर से कोई रहा न दीख 

पेट पीठ दोउ एक हो रहे , हल की मुठ्या रही न छूट
लहसुन चटनी मोती रोटी , लिए बहुरिया दीख पड़ी
लिए पतीली नाती दौड़ा , जीवन रस था छलक रहा।
हुआ अँधेरा बैल थक गए, दादा थक के चूर हुए 
थके हुए बैलों संग दादा ,सीधे घर को निकल लिए
गौ धूली की बेला हो गई , गोरू चर के लौट रहे
गांव के धूमिल डगरी में ,टन -टन घाँटी बजन लगी।
थके हुए दादा घर लौटे , बैल लगाए नाँद पर 
हाड़ हुई सी देह को लेकर , टूटी खटिया लोट पड़े
लरिका बच्चा, नाती पोते , दादा ऊपर लोट रहे
इतना निर्मल दृश्य देख कर ,दादा दुःख हैं भूल गए।
हुआ अँधेरा रात हो गई , झींगुर देखो बोल रहे 

दिआ बहुरिया सूख रोटी , दादा देखो मींस रहे
हुआ पसीना गरमी में है , मच्छर देखो नोच रहे
करवट लेते रात बीत गई , मुर्ग़े देखो बोल रहे ।
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